रामकृष्ण परमहंस जी गले के कैंसर से पीड़ित थे। एक दिन डाक्टर ने कहा कि अब अन्तिम समय आ गया लगता है। यह जानकर उनकी पत्नी रोने लगी। इस पर रामकृष्ण जी ने कहा, शारदा! रो मत। क्योंकि जो मरेगा वह तो मरा ही हुआ था, और जो जिंदा था वह कभी नहीं मरेगा। और हाँ, चूड़ियां मत तोड़ना। फिर तूने मुझे चाहा था या इस देह को? तूने किसे प्रेम किया था? मुझे या इस शरीर को? अगर इस देह को किया था तो तेरी मर्जी, फिर तू चूड़ियां तोड़ लेना। अगर मुझे प्रेम किया था तो मैं नहीं मर रहा हूं। मैं रहूंगा। मैं उपलब्ध रहूंगा। और शारदा ने चूड़ियां नहीं तोड़ीं। शारदा की आंख से आंसू की एक बूंद नहीं गिरी। लोग तो समझे कि उसे इतना भारी धक्का लगा है कि वह विक्षिप्त हो गयी है। लोगों को तो उसकी बात विक्षिप्तता ही जैसी लगी। लेकिन उसने सब काम वैसे ही जारी रखा जैसे रामकृष्ण जिंदा हों। रोज सुबह वह उन्हें बिस्तर से आकर उठाती कि अब उठो परमहंसदेव, भक्त आ गए हैं–जैसा रोज उठाती थी, भक्त आ जाते थे, और उनको उठाती थी आकर। मसहरी खोलकर खड़ी हो जाती–जैसे सदा खड़ी होती थी। ठीक जब वे भोजन करते थे तब वह थाली लगाकर आ जाती थी, बाहर आकर भक्तों के बीच कहती कि अब चलो, परमहंसदेव! लोग हंसते, और लोग रोते भी कि बेचारी! इसका दिमाग खराब हो गया! किसको कहती है? थाली लगाकर बैठती, पंखा झलती। वहां कोई भी नहीं होता था ।
इस प्रकार शारदा सधवा ही रही। प्रेम की एक ऊंची मंजिल उसने पायी। रामकृष्ण परमहंस उसके लिए कभी नहीं मरे। प्रेम मृत्यु को जानता ही नहीं। लेकिन प्रेम की मृत्यु में जो मरा हो पहले, वही फिर प्रेम के अमृत को जान पाता है। प्रेम स्वयं मृत्यु है, इसलिए फिर किसी और मृत्यु को प्रेम क्या जानेगा!...वैसे भी क्योंकि आत्मा तो अनश्वर है तो विलाप व्यर्थ है।
इस प्रकार शारदा सधवा ही रही। प्रेम की एक ऊंची मंजिल उसने पायी। रामकृष्ण परमहंस उसके लिए कभी नहीं मरे। प्रेम मृत्यु को जानता ही नहीं। लेकिन प्रेम की मृत्यु में जो मरा हो पहले, वही फिर प्रेम के अमृत को जान पाता है। प्रेम स्वयं मृत्यु है, इसलिए फिर किसी और मृत्यु को प्रेम क्या जानेगा!...वैसे भी क्योंकि आत्मा तो अनश्वर है तो विलाप व्यर्थ है।
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