बुधवार, 16 जनवरी 2013

व्यापार का साधन

उन दिनों महावीरप्रसाद द्विवेदी सरस्वती नामक पत्रिका का संपादन करते थे । अपने लेखन के कारण वह काफी विख्यात हो चुके थे । एक बार एक सज्जन ने उन्हें स्वदेशी शक्कर की कुछ थैलियां भेंट की । उन महाशय का शक्कर की थैलियां देने के पीछे विचार यह था कि महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती में उनकी प्रशंसा में कुछ ऐसा लिख दें कि वह शहर भर में चर्चित हो जाएं ।
                                                                थैलियां देने के कुछ दिन बाद वह सज्जन फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिले और उन्हें अपनी थैलियों के विषय में याद दिलाया तो महावीर प्रसाद द्विवेदी मुस्कराते हुए उठे और अलमारी से उनकी थैलियां निकाल कर देते हुए बोले,'' भाई, तुम्हारी थैलियां जैसी की तैसी रखी हुई हैं। सरस्वती को व्यापार का साधन बना कर मैं उसे लक्ष्मी के समक्ष अपमानित नहीं कर सकता।''

2 टिप्‍पणियां:

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अत्यंत प्रेरक .... ऐसे संस्मरण सुनने और पढ़ने से व्यक्ति स्वाभिमानी बनना सीखता है।


दिनेश जी, आप शिक्षक का धर्म निभाते चलें ... हम पाठक का। :)

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह....
बेहद प्रेरणादायी प्रसंग....

आभार
अनु