दिल्ली के सिंहासन पर उन दिनों गुलाम वंशीय बादशाह नसीरूद्दीन का शासन था । वह बड़ा नीतिनिष्ठ एवं पुरुषार्थी शासक था । पुस्तक लिखने से उसको जो आय होती, उसी से वह अपना जीवन निर्वाह करता था । राजकोष से उसने कभी एक पैसा भी अपने या अपने परिवार के निजी खर्च के लिए नहीं लिया था । मुसलमान शासकों के रिवाज के विपरीत उसके एक ही पत्नी थी । नौकर कोई भी नहीं था । यहां तक कि रसोई भी स्वयं बेगम को अपने हाथ से बनानी पड़ती थी ।
एक बार रसोई बनाते समय उनकी बेगम साहिबा का हाथ जल गया । बेगम ने बादशाह से कुछ दिन के लिए नौकरानी रखने की प्रार्थना की तो बादशाह ने उत्तर दिया,''प्रजाकोष पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। वह तो मेरे पास प्रजा की धरोहर मात्र है। उस में से मैं अपने खर्च के लिए एक पैसा भी नहीं ले सकता और मेरी स्वयं की कमाई इतनी है नहीं कि उसमें से नौकर रखा जाए। तुम ही बताओं हम नौकर कहां से रखें।'' अपने पति की बात सुनकर उनकी बेगम अत्यंत प्रभावित हुई।
1 टिप्पणी:
अगर बस कहानी है तो ठीक है किन्तु जिस शासक का नाम यहाँ लिया जा रहा है उसकी भक्ति प्रजा के प्रति नहीं अपने मालिक के प्रति ज्यादा थी |
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