छात्रावास में जब सभी छात्रों को भोजन परोसा गया तो कई छात्रों ने प्लेट में रखी सब्जी को देख कर नाक-भौं सिकोड़ ली । उस दिन सब्जी में बैंगन का भुरता बना था । अधिकांश छात्र शोर मचाने लगे । कुछ ने उस में जली हुई रोटी के किनारे तोड़े तथा उन में पानी मिलाकर प्लेट दूर खिसका दी और कभी रसोइए पर तो कभी सब-अधिकारी पर फब्तियां कसी जाने लगीं । जब भोजन कक्ष में यह हंगामा मच रहा था तो बाहर एक व्यक्ति भोजन करने वाले सभी छात्रों के जूतों को इधर-उधर से उठा कर करीने से लगा रहा था । शोर बढ़ गया तो वह व्यक्ति अन्दर गया। सरका कर रखी गई जली रोटी के टुकड़े, पानी तथा भुरते वाली प्लेट उठाई और उस में जैसा भी कुछ मिला, उसे मजे से खाने लगा । अब लड़कों से नहीं रहा गया । उन्होंने दूसरी प्लेट मंगाने को कहा तो व्यक्ति के हाथ रूक गए, उस ने अपनी खामोशी तोड़ी और कहा, तुम लोगों को मालूम नहीं कि तुम्हारे आस-पास की बस्तियों में ऐसे लोग भी रहते हैं जिनको यह भी खाने को मिल जाए, तो तुम ने फेंका है तो वे भूखे नहीं सोएंगे, मगर तुम लोगों ने इस खाने को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि यह किसी को दिया जा सके । इसीलिए मैंने सोचा कि यदि मैं ही इसे खा लूं तो कम से कम मेरा खाना तो किसी भूखे को दिया जा सकेगा । अन्न के अनादर को सब से बड़ा अपराध मानने वाला यह व्यक्ति था- डा॰ जाकिर हुसैन । जो हमारे देश के तीसरे राष्ट्रपति हुए ।
रविवार, 30 अगस्त 2009
रविवार, 23 अगस्त 2009
देश भक्त
फ्रांस की एक नदी में वर्षा के कारण बाढ़ आई हुई थी । शाम के वक्त लगभग 12 वर्ष का एक लड़का नदी के किनारे-किनारे चला जा रहा था । अचानक उसने देखा कि नदी के बांध में एक जगह छेद हो गया है और उसमें से पानी रिस रहा है । ‘इस तरह तो पूरा नगर पानी में डूब जाएगा|'' यह सोच कर उसने छेद वाली जगह पर भरपूर मिट्टी डाल दी । लेकिन पानी के अधिक वेग के कारण मिट्टी रूक नहीं सकी । उधर छेद बड़ा होता जा रहा था । नगर में जाकर सूचना देने में देर हो जाती, क्योंकि तब तक बाँध टूट सकता था, यह सोच कर लड़का स्वयं छेद वाली जगह में लेट गया । पूरी रात इसी तरह बीत गई । उधर लड़के के माता-पिता बहुत चिंतित थे। उन्हें डर था कि नदी के किनारे चलते हुए उन का लड़का नदी में न गिर गया हो । वे सुबह होते ही नदी के किनारे-किनारे चल पड़े । लड़के ने उन्हें देखा तो चिल्ला कर अपने पास बुलाया और पानी रोकने का इंतजाम करने को कहा। उसके माता-पिता ने नगर में जाकर इस बात की सूचना दी तो शीघ्र ही आवश्यक प्रबंध किए गए । बालक की इस वीरता और देशभक्ति पर सरकार ने उसे सम्मानित किया। यही बालक आगे चलकर फ्रांस का राष्ट्रपति बना । इस देशभक्त का नाम था - नेपोलियन ।
शनिवार, 15 अगस्त 2009
आजादी का सिपाही
आजादी से कुछ साल पहले की बात है । पूरे देश में आन्दोलन की लहर थी । उसी लहर में उड़ीसा के ढेंकानाल जिले में अनगुल गांव की जनता वहां के राजा के खिलाफ एकजुट होने लगी । वहां प्रजा परिषद् के गठन की मांग होने लगी । वहां का राजा अंग्रेजों की कठपुतली था । आन्दोलन से घबरा कर उसने अंग्रेजों से सहायता मांगी, अंग्रेजों ने सहायता देने के बदले यह शर्त रखी कि आन्दोलन दबाने के बाद उस राज्य का संचालन उन्हें सौंपना होगा । राजा ने शर्त मान ली । उसी दिन अंग्रेज फौजी अनगुल जाने के लिए नदी के दूसरे पार आ धमके। नदी के किनारे एक 12 वर्षीय लड़के से फौज की एक टुकड़ी के कप्तान ने कड़क कर कहा, ''ए लड़के, नाव लगा, हमें पार जाना है|'' कप्तान ने सोचा कि दूसरे लड़कों की तरह वह भी कांप कर हुक्म पूरा करेगा, लेकिन वह लड़का तन कर खड़ा रहा और उसकी आज्ञा नहीं मानी । कप्तान चौंक गया, फिर गुस्से से कांपते हुए बोला, ''चल, नाव लगा ।'' ''नहीं, मैं नहीं लगाऊंगा|'' उस लड़के ने कड़क कर कहा । ''बहुत हो चुका| चलो! नाव पर चढ़ो|'' गोरे कप्तान ने झुंझला कर बाकी अंग्रेजों को आदेश दिया । ''नहीं, खबरदार! जो कोई नाव पर चढ़ा|'' लड़का पतवार लेकर बीच में अड़ गया । एक अंग्रेज सिपाही इसे बचपन की चंचलता समझ कर आगे बढ़ा । तभी पतवार का चैड़ा सिरा उस के सिर से टकराया और अगले ही क्षण वह खून से लथपथ सिर को थामे पानी में गोते लगा रहा था । यह दृश्य देख कर क्रोध् से अंग्रेज कप्तान हिंसक हो उठा और अगले ही क्षण उस की पिस्तौल गरजी, धांय-धांय ? और इस तरह अनगुल का वह साहसी किशोर बाजीराव अपने गांव की स्वतंत्रता को कायम रखने के प्रयास में शहीद हो गया ।
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
कर्त्तव्य
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कलकत्ता के बड़ा बाजार से होकर गुजर रहे थे कि रास्ते में उन्हें 14-15 वर्ष की आयु का एक लड़का मिला । नंगे पैर, फटे-पुराने कपडे और बुझा-सा चेहरा उस की हालात बताने के लिए पर्याप्त थे । उसने ईश्वरचंद्र विद्यासागर से गिड़गिड़ाते हुए कहा , ''कृपया मुझे एक आना दे दीजिए, मैं दो दिन से भूखा हूँ।''
उन्होंने उस लड़के से कहा, ''ठीक है, आज मैं तुम्हें एक आना दे दूंगा, लेकिन कल क्या करोगे ?'' ''कल मैं किसी दूसरे से मांग लूंगा ।'' लड़के ने कहा |'' अगर चार आने दे दूं तो क्या करोगे?'' ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उससे फिर पूछा| ''उसमें से एक आने का भोजन करूंगा और शेष 3 आने के संतरे ला कर यही सड़क पर बैठ कर बेचूंगा |'' लड़के ने कहा ।'' और अगर एक रुपया दे दूं तो ?''तब फेरी लगाऊंगा ,'' लड़के ने प्रसन्न होकर कहा । ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उसे एक रूपया दे दिया। वह लड़का उस रूपए से सामान ला कर बेचने लगा । बहुत दिनों बाद एक दिन वह अपनी दुकान पर बैठा था । तभी उसकी दृष्टि ईश्वरचंद्र विद्यासागर पर पड़ी । वह उन्हें अपने दुकान पर ले आया और हाथ जोड़कर बोला, ''आप ने मुझ पर जो उपकार किया था उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। यह लीजिए, आपका रूपया ।'' ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने मुस्कराते हुए कहा, ''इस में आभार मानने की कोई जरूरत नहीं है । एक देशवासी होने के नाते यह मेरा कर्त्तव्य था । तुम्हें मेरा वह एक रूपया देना सार्थक हुआ। अब यह रूपया तुम किसी और योग्य एवं जरूरतमंद को दे देना ।''
उन्होंने उस लड़के से कहा, ''ठीक है, आज मैं तुम्हें एक आना दे दूंगा, लेकिन कल क्या करोगे ?'' ''कल मैं किसी दूसरे से मांग लूंगा ।'' लड़के ने कहा |'' अगर चार आने दे दूं तो क्या करोगे?'' ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उससे फिर पूछा| ''उसमें से एक आने का भोजन करूंगा और शेष 3 आने के संतरे ला कर यही सड़क पर बैठ कर बेचूंगा |'' लड़के ने कहा ।'' और अगर एक रुपया दे दूं तो ?''तब फेरी लगाऊंगा ,'' लड़के ने प्रसन्न होकर कहा । ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उसे एक रूपया दे दिया। वह लड़का उस रूपए से सामान ला कर बेचने लगा । बहुत दिनों बाद एक दिन वह अपनी दुकान पर बैठा था । तभी उसकी दृष्टि ईश्वरचंद्र विद्यासागर पर पड़ी । वह उन्हें अपने दुकान पर ले आया और हाथ जोड़कर बोला, ''आप ने मुझ पर जो उपकार किया था उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। यह लीजिए, आपका रूपया ।'' ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने मुस्कराते हुए कहा, ''इस में आभार मानने की कोई जरूरत नहीं है । एक देशवासी होने के नाते यह मेरा कर्त्तव्य था । तुम्हें मेरा वह एक रूपया देना सार्थक हुआ। अब यह रूपया तुम किसी और योग्य एवं जरूरतमंद को दे देना ।''
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
उपयोग
पंडित मदनमोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए जगह-जगह जा कर धन इकट्ठा कर रहे थे । एक बार वे सहयता मांगने हैदराबाद के नवाब के यहां पहुंचे, लेकिन उन्हें खाली हाथी वापस आना पड़ा । हैदराबाद में घूमते हुए उनकी दृष्टि एक धनी व्यक्ति की अर्थी पर पड़ी, जिसे उस के परिजन अंतिम संस्कार करने श्मशान घाट ले जा रहे थे । परंपरा के अनुसार अर्थी पर पैसे लुटाए जा रहे थे । मालवीयजी शमयात्रा में शामिल हो कर पैसे उठाने लगे । एक संपन्न व्यक्ति को ऐसा करते देख कुछ लोगों ने टोका तो मालवीयजी ने पूरी घटना बताई कि किस उद्देश्य से वह हैदराबाद आए थे और कैसे उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा था । उन्होंने आगे कहा,''इस पैसे को जोड़ कर जो धन प्राप्त होगा, उसे मैं हैदराबाद के सहयोग के रूप में निर्माण कार्य में लगाउंगा । यह सुनकर उस शवयात्रा में शामिल धनाढ्य लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आपस में चंदा इकट्ठा करके कई हजार रूपये मालवीयजी को दिए ।
रविवार, 2 अगस्त 2009
रूप और गुण
प्रख्यात दार्शनिक सुकरात शक्ल-सूरत से कुरुप था । वह रोज आईने में अपना चेहरा देखा करता था । एक दिन वह आईने में अपना चेहरा देख रहा था कि उस का शिष्य सामने आ खड़ा हुआ और अपने गुरु को आईने में चेहरा देखता देख कर मुस्करा उठा । सुकरात उसके मुस्कराने का कारण समझ गया । वह बोला, ''मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझता हूँ । तुम इसलिए मुस्कराए हो न कि मैं कुरुप हूं और आईने में बड़े गोर से अपना चेहरा देख रहा हूँ? मैं ऐसा रोज करता हूँ ।'' शिष्य हतप्रभ खड़ा रह गया । उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था । शर्म के मारे उस का सिर नीचे झुका रहा । वह क्षमा मांगता, इससे पूर्व ही सुकरात बोला, ''आईना देखने से मुझे अपनी कुरुपता का आभास होता रहता है । मैं अपने रूप से भलीभांति परिचित हूं, इसलिए प्रयत्न करता हूं कि मुझ से हमेशा अच्छे काम होते रहें । मैं समाज की भलाई में लगा रहूं ताकि अच्छे कामों से मेरी कुरुपता ढक सके।'' कह कर सुकरात खामोश हो गया ।
''गुरुवर, इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि रूपवान लोगों को आईना देखना ही नहीं चाहिए?'' शिष्य सकुचाते हुए बोला ।
''नहीं,ऐसी बात नहीं । आईना उन्हें भी देखते रहना चाहिए । केवल इसलिए कि उन्हें ध्यान रहे कि वे जितने सुंदर हैं उतने ही अच्छे और भलाई के काम करें । उन्हें बुरे काम से बचना चाहिए, ताकि उन की सुंदरता को कुरुपता का ग्रहण न लग सके । व्यक्ति के गुणों अवगुणों का संबंध रूपवान व कुरुप होने से नहीं, बल्कि अच्छे व बुरे विचारों से कामों से है । अच्छा काम करने से रूपवान और सुंदर लेते हैं । बुरे काम उनके रूपवान व्यक्तित्व पर ग्रहण जैसे होते हैं ।'' सुकरात ने उत्तर दिया।
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