रविवार, 2 अगस्त 2009

रूप और गुण

प्रख्यात दार्शनिक सुकरात शक्ल-सूरत से कुरुप था वह रोज आईने में अपना चेहरा देखा करता था एक दिन वह आईने में अपना चेहरा देख रहा था कि उस का शिष्य सामने खड़ा हुआ और अपने गुरु को आईने में चेहरा देखता देख कर मुस्करा उठा सुकरात उसके मुस्कराने का कारण समझ गया वह बोला, ''मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझता हूँ तुम इसलिए मुस्कराए हो कि मैं कुरुप हूं और आईने में बड़े गोर से अपना चेहरा देख रहा हूँ? मैं ऐसा रोज करता हूँ '' शिष्य हतप्रभ खड़ा रह गया उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था शर्म के मारे उस का सिर नीचे झुका रहा वह क्षमा मांगता, इससे पूर्व ही सुकरात बोला, ''आईना देखने से मुझे अपनी कुरुपता का आभास होता रहता है मैं अपने रूप से भलीभांति परिचित हूं, इसलिए प्रयत्न करता हूं कि मुझ से हमेशा अच्छे काम होते रहें मैं समाज की भलाई में लगा रहूं ताकि अच्छे कामों से मेरी कुरुपता ढक सके।'' कह कर सुकरात खामोश हो गया
''गुरुवर, इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि रूपवान लोगों को आईना देखना ही नहीं चाहिए?'' शिष्य सकुचाते हुए बोला
''नहीं,ऐसी बात नहीं आईना उन्हें भी देखते रहना चाहिए केवल इसलिए कि उन्हें ध्यान रहे कि वे जितने सुंदर हैं उतने ही अच्छे और भलाई के काम करें उन्हें बुरे काम से बचना चाहिए, ताकि उन की सुंदरता को कुरुपता का ग्रहण लग सके व्यक्ति के गुणों अवगुणों का संबंध रूपवान कुरुप होने से नहीं, बल्कि अच्छे बुरे विचारों से कामों से है अच्छा काम करने से रूपवान और सुंदर लेते हैं बुरे काम उनके रूपवान व्यक्तित्व पर ग्रहण जैसे होते हैं ।'' सुकरात ने उत्तर दिया

1 टिप्पणी:

श्यामल सुमन ने कहा…

बचपन में एक गीत सुना करता था कि-

मन की गौराई के आगे तन की गौराई कुछ भी नही।
ये भोली सूरत कुछ भी नहीं ये चाँद सी मूरत कुछ भी नहीं।।

शिक्षाप्रद पोस्ट।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com